Friday 8 May 2009

हजारों जिंदगियों की कीमत सिर्फ 155 रूपये

मेरे एक मित्र को अपना गृहस्थी का सामान ग्वालियर से भोपाल भेजना था। वह स्टील की आलमारी, कूलर और आठ दस सामान से भरे बोरे रेलवे स्टेशन के पार्सल कार्यालय के बाहर लेकर पहुंचा तो उसके मन में एक अजीब सी शंका थी कहीं बोरे खोल कर उनकी तलाशी ली गई तो?शंका वाजिब थी क्योंकि आतंकवादी गतिविधियों के चलते रेलवे स्टेशनों पर तगड़ी सुरक्षा होना लाजिमी था। उसे डर इस बात का नहीं था कि बोरे खुलने से उस पर कोई आफत आ सकती थी डर इस बात का था कि बोरों को बहुत मेहनत से सिला गया था कहीं तलाशी में सारा सामान बिखेर दिया गया और बोरे सीने के लिये कोई साधन रेलवे स्टेशन पर नहीं मिला तो क्या होगा?आगे क्या हुआ देखिये

दृश्य एक

शाम साढ़े चार बजे उसका सामान पार्सल कार्यालय के बाहर सड़क पर लोडिंग आॅटो से उतारा गया तो पार्सल कार्यालय के दरवाजे पर सामान पड़ा होने के कारण बाहर साढ़े पांच बजे तक यानी एक घंटे तक लावारिस सा पड़ा रहा इस बीच कई पुलिसकर्मी उस सामान के आसपास से गुजरे किसी ने आंख उठा कर नहीं देखा।

दृश्य दो

साढ़े पांच बजे सामान पार्सल कार्यालय के अंदर पहुंचाया गया। उसकी तुलने की प्रक्रिया काफी मान मनोव्वल के बाद साढे छह बजे प्रारम्भ हुई यानी एक घंटे तक एक नम्बर प्लेटफार्म से लगे हुये कार्यालय में सामान पड़ा रहा कोई देखने वाला नहीं था।

दृश्य तीन

सामान तुलवाने के बाद बिना किसी कागजी कार्यवाही के, बिना किसी तलाशी के एक नम्बर प्लेटफार्म पर उस जगह पहुंचा दिया गया जहां जनरल डिब्बे आकर रूकते हैं और हमेशा ही बेतहाशा भीड़ रहती है। फिर कागजी कार्यवाही के लिये सामान छोडकर मित्र को कार्यालय में बुला लिया गया। जहां एक घंटे फिर लगा। सामान प्लेटफार्म पर ही पड़ा रहा किसी ने नहीं पूछा।

दृश्य चार

4 क्विंटल 42 किलो वजन के 845 रूपये बताये गये। लेकिन मांगे गये एक हजार रूपये। वहां बैठे अधिकारी से पूछा गया एक सौ पचपन रूपये किस बात के? उसने बताया कि अगर ये रूपये नहीं दोगे तो कूलर आलमारी के बिल लाना पड़ेंगे। अभी पुलिस वालों को बुलाकर बोरे खोल कर सारा सामान चैक करना पडेगा, देखना पड़ेगा कि इसमें वाकई गृहस्थी का ही सामान है या कुछ और। अगर गृहस्थी का ही सामान निकला तो पैकिंग वाले से दुबारा पैकिंग करवाना पड़ेगी और वो सिर्फ आलमारी के ही 250 रूपये लेता है फिर कूलर है, बोरे हैं। मित्र ने एक हजार रूपये चुपचाप निकाल कर दिये और कार्यालय से बाहर आ गया। सामान बिना चैक हुये प्लेटफार्म पर ही पड़ा रहा और 24 घंटे तक वहीं पड़ा रहा। उसके बाद उस सामान को अलग-अलग यात्री गाड़ियों में लाद कर भोपाल पहुंचा दिया गया।

अगर मेरे उस मित्र की जगह कोई आतंकवादी होता और गृहस्थी के सामान की जगह विस्फोटक होता तो क्या होता?

कहां है वो सुरक्षा व्यवस्था जिसके दावे केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें कोई बड़ी आतंकवादी घटना घटित होने के बाद करती हैं?

सवाल ये पैदा होता है कि क्या रेलवे कर्मचारियों और अधिकारियों का यह कृत्य गंभीर अपराध नहीं है। गंभीर क्या शायद हमारी व्यवस्था में ये अपराध ही नहीं है। जबकि रेलवे कर्मचारियों और अधिकारियों की ऐसी ही लापरवाही की वजह से आतंकवादी आसानी से रेलों को अपना निशाना बना लेते हैं और परिणाम उन सैकड़ों जिंदगियों को भुगतना पड़ता है जिनकी कीमत ऐसे अधिकारी सिर्फ 155 रूपये वसूलते हैं।